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ग॒म्भी॒राँ उ॑द॒धीँरि॑व॒ क्रतुं॑ पुष्यसि॒ गा इ॑व। प्र सु॑गो॒पा यव॑सं धे॒नवो॑ यथा ह्र॒दं कु॒ल्या इ॑वाशत॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gambhīrām̐ udadhīm̐r iva kratum puṣyasi gā iva | pra sugopā yavasaṁ dhenavo yathā hradaṁ kulyā ivāśata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ग॒म्भी॒रान्। उ॒द॒धीन्ऽइ॑व। क्रतु॑म्। पु॒ष्य॒सि॒। गाःऽइ॑व। प्र। सु॒ऽगो॒पाः। यव॑सम्। धे॒नवः॑। य॒था॒। ह्र॒दम्। कु॒ल्याःऽइ॑व। आ॒श॒त॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:45» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् पुरुष ! जिससे आप (गम्भीरान्) अथाह (उदधीनिव) जल जिनमें रहैं उन समुद्रों के सदृश और (गाइव) पृथिवियों के सदृश (क्रतुम्) बुद्धि को (पुष्यसि) पूर्ण करते हो (सुगोपाः) उत्तम प्रकार रक्षा करनेवाले होकर (यथा) जैसे (धेनवः) गौएँ (यवसम्) धान्य तृण आदि (ह्रदम्) और जल के स्थान को (कुल्या इव) वाटिका आदि में जल चलाने के मार्गों के तुल्य जो (प्र, आशत) प्राप्त हों इससे और वैसे आप और ये लोग संपूर्ण सुखों को प्राप्त होते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिन लोगों की समुद्र के सदृश अचल गम्भीर बुद्धि पृथिवी के सदृश क्षमा और पालने का सामर्थ्य गौ के सदृश दान और नदी के सदृश वृद्धि है, वे ही संपूर्ण सुखों से युक्त होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन्यतस्त्वं गम्भीरानुदधीनिव गा इव क्रतुं सुगोपाः सन् पुष्यसि यथा धेनवो यवसं ह्रदं कुल्याइव ये प्राशत तस्मात्तथा च त्वमेते सर्वाणि सुखानि लभन्ते॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गम्भीरान्) अगाधान् (उदधीनिव) उदकानि धीयन्ते येषु तानिव (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (पुष्यसि) (गाइव) पृथिव्य इव (प्र) (सुगोपाः) यः सुष्ठु रक्षति सः (यवसम्) धान्यपलादिकम् (धेनवः) गावः (यथा) (ह्रदम्) जलाशयम् (कुल्या इव ) वाटिकादिषु जलचालनमार्गा इव (आशत) व्याप्नुत ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। येषां समुद्रवदक्षोभ्या प्रज्ञा पृथिवीवत् क्षमा पालनशक्तिर्धेनुवद्दानं कुल्यावद्वर्धनं वर्त्तते त एव सर्वसुखा जायन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्यांची समुद्राप्रमाणे अचल गंभीर बुद्धी, पृथ्वीप्रमाणे क्षमा व पालन करण्याचे सामर्थ्य, गायीसारखे दान व नदीप्रमाणे प्रवाहित राहण्याची वृत्ती आहे, तेच संपूर्ण सुखांनी युक्त असतात. ॥ ३ ॥